आखिर यह गणतंत्र किसके लिए?
कुलदीप राणा आजाद/सम्पादक केदारखण्ड एक्सप्रेस
हम एक और गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं। भारत जैसे विशाल लोकतंत्रित देश में हर वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र का पर्व बड़े शानो-शौकत से मनाया जाता है। लेकिन सोचिये जरा जिस लोकतांत्रिक देश में गण की सुनी ही नहीं जाती हो तो, वहां फिर गणतंत्र के क्या मायने रह जाते हैं? वर्तमान परिस्थितियों को अगर देखें तो देश के भीतर जिस तरह का माहौल बना है यह हमारी लोकतात्रिक व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता नजर आ रहा है। चारों तरफ आन्दोलनों की आग में देश जूलस रहा है, लेकिन जिस तंत्र के भरोसे गण की जिम्मेदारी दी गई है वह कहीं भी अपनी जिम्मेदारियों की कसौटी पर खरा उतरता हुआ नजर नहीं आ रहा है।
देश में किसान आन्दोलन की बात करें या फिर देश के सूदूरवर्ती उत्तराखण्ड के जनपद चमोली के घाट ब्लाॅक की, जहाँ सड़क चैड़ीकरण के लिए लोग न केवल महिनों से धरना प्रर्दशन कर रहे हैं बल्कि अब भूख हड़ताल करने को विवश हो गए हैं। लेकिन मजाल क्या कि सरकार उनकी सुने। यह स्थिति अबके बरस की नही है, मसलन सालों से लोकतात्रिक व्यवस्था जनता की जवाबदेही से इसी तरह बचती नजर आ रही है। यानि की देश की राजधानी दिल्ली से लेकर अंतिम छोर के व्यक्ति तक त्राहिमान है तो फिर आखिर यह गणतंत्र है किसके लिए?
भारत की संविधान के गठन हुए 70 वसंत पार हो चुके हैं। इन वर्षों में विद्यालय, दवाखाने, सड़क और बिजली के साथ सूचना क्रांति का व्यापक प्रसार हुआ है। विज्ञान ने भी नये-नये आयाम स्थापित किए हैं। लेकिन किसान व मेहनतकश गरीबी समाप्त नहीं हुई है और किसानों की आत्म हत्याओं की लम्बी फेरिस्त हो चली है तो उसके लिए आजादी किस काम की? यह बड़ी समस्या के रूप में उभर आई। ग्रामीण किसान और दस्तकार आज भारी कर्जें में डूबा हुआ है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि वह आत्महत्या के लिए विवश हो रहा है। जवान हो चुके गणराज्य में किसानों को खुदखुशी करनी पड़ेगी, ऐसा किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था। इस अवधि बढ़ी है तो अमीरों की अमीरी, लेकिन गरीब की गरीबी न मिटने से आर्थिक विषमता में वृद्धि हुई है। देश में बेरोजगारी, बाल अपराध, बाल मजदूरी, महिला हिंसा, हत्यायें, लूट-डकैती, आतंकवाद आदि अराजक तत्वों में तेजी से वृद्धि हुई है। शिक्षा बेशुमार महंगी हो गई है और शिक्षित व्यक्ति मेहनत का काम करने मंे अक्षम हो गया है। सब नौकर बनने को लालयित हैं क्योंकि उसमें काम भी कम और जिम्मेदारी भी। काम हो न हो, लेकिन तनख्वाह तो पक्की है। लेकिन सबको नौकरियां मिलेगी कहां से?
हमारा परम्परागत लोक ज्ञान लुप्त होता जा रहा है। इससे घरेलू, नुस्खे और सादी औषधियां छूट गई हैं और बड़ी कम्पनियों की महंगी दवाइयाँ खरीदनी पड़ रही हैं। कृतिम खादों से उत्पादकता घट गई है और कीटनाशकों के प्रयोग से हमें अनेक बीमारियों का शिकार होना पड़ रहा है। बढ़ते कारखानों, मोटर गाड़ियों और भीड़ के कारण हवा-पानी प्रदूषित हो गए हैं।
जब हम अपने गणतंत्र का आंकलन करते हैं तो सर्वत्र दुःख, अभाव, आक्रोश और आन्दोलन ही दिखाई देते हैं। सत्ता भले ही पूरी तरह जनता के हाथों में दिखाई देती हो लेकिन वह आज निराश है, हताश है। जनता का विश्वास राजनीति एवं लोकतंत्र से उठता जा रहा है, क्योंकि राजनीति आज मात्र एक कमाई का साधन बन गई है। सत्ता में जाने के बाद बड़े पद और बड़े रूतबे के साथ ही धनपति बनने की होड़ शुरू हो जाती है। तब जनता को कौन पूछता है?
हमारे गणराज्य नेता, अफसर माफिया की चांडाल चैकड़ी हावी हो गई है और एक ही सवाल मन-मस्तिष्क में कौंधता है कि क्या वास्तव में हम एक गणराज्य के नागरिक हैं?
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