पृथक - उत्तराखंड राज्य, अब कहां तुम हो?
सही यातनाएं,
खाई लाठी,
भूखे - प्यासे,
खाई गोली छाती।
लो अब मिला राज्य,
ये क्या - बिना राजधानी?
देहरादून अस्थाई थोपी,
जनता ने थी गैरसैंण ठानी।
जन भावनाओं की ,
सरकार थी बननी।
नेताओं की कारगुज़ारी देखो,
अलग थी इनकी कथनी - करनी।
राजधानी पर सिर्फ आयोग बनाए,
पहाड़ को बस छलते आए,
और गैरसैंण !
ये वोट बैंक की पोथी बन गई,
फिर ग्रीष्म - शीत का झुनझुना लाए।
पीड़ा कैसे ये महसूस करेंगे?
दरबारों से ही ये दुःख दर्द नापें।
असुविधाओं के भी पहाड़ बना गए,
जनता को बस वोटों से हांके।
स्वास्थ्य, शिक्षा का रसूख भी देखा,
हल्द्वानी और बस दून खड़ी हैं।
पहाड़ों में सिर्फ नाम सुनो तुम,
जहां भी हैं, बेसुध पड़ी हैं।
दंश पलायन का तो,
झेल ही रहे थे।
बेरोजगारी के भी,
आयाम नए हैं।
इन्हीं मुद्दों पर तो,
अलग राज्य दिया था,
सत्ता लोलुपता नेताओं की,
सब मुद्दों को ये मोड़ गए हैं।
मानो धरती पर ये स्वर्ग बसा है,
इतना सुंदर राज्य कहां है?
बद्री - केदार धाम विराजे,
गंगा - यमुना के उद्गम जहां हैं।
माना की 20 वर्ष बीत गए,
अब तो हुक्मरानों आंखे खोलो।
सिर्फ कुर्सी को ही राज्य ना समझो,
असल मुद्दों पर भी कुछ बोलो।
हर उत्तराखंडवासी आज यहीं प्रश्न कर रहा,
सपनों के थे उत्तराखंड तुम, अब कहां गुम हो?
कुर्सी बन बैठी हो, बस नेताओं की।
पृथक - उत्तराखंड राज्य, अब कहां तुम हो?
©®कुन्दन सिंह चौहान
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