एक आँसू नही बहा चुपचाप प्यार में मौत के गले लगा कर अमर हो गयी तिलोगा-अमर की प्रेमगाथा
तीनधारा से पहले पहाड़ी पर बसा भरपूर गाँव पहाड़ की एक सुदंर प्रेमकथा का गाँव है। इस रास्ते से गुजरते हुऐ कई लोग भरपूरगढी से वाकिफ होगे। गढवाल की 52 गढीयो (राजमहल- किला या दुर्ग ) में भरपूर गढी और वहाँ के शाषक सजवाणो की बहुत सारी वीर गाथाऐ गढवाल के इतिहास में दर्ज है। आज सुबह देहरादून जाते समय संयोगवश इसी जगह पर जाम लग गया। जाम खुलने में एकाध घंटा लग जाना था सो चोटी पर भरपूर गढी देखने की इच्छा बड़ गयी। बस निकल पड़ा अपनी एक पुरानी मुराद को पूरी करने की डगर पर। सड़क से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर है सजवाण वीरो की यह ऐतिहासिक भरपूरगढी। इस गढी के वारिसदारो में 80 वर्षीय शंकरी देवी सजवाण और ठाकुर नारायण सजवाण से मुलाकात हुई। उनसे मिली जानकारी ने मेरा रोमांच दुगना कर दिया। इस पूरी वार्ता की शुरूवात क्वीली से भरपूर गढी में ठाकुर लक्ष्मण सिंह सजवाण के आने से होती है। ये दोगी और भरपूर पट्टी की जागीरदार थे। उन्होने ही भरपूर गाँव के शीर्ष पर एक महल जिसे गढ़वाली भाषा में कोठा / क्वाठा कहा जाता है बनाया।
बात बहुत पुरानी है , जब गढवाल में बावन गढीयो का राज्य था। गंगा से सटी इस चोटी पर सजवाण राजपूतों का गढ़ी थी-भरपूर। इस गढ़ में रहता था चौड़ी छाती -बलिष्ठ भुजदंड और स्वप्निल नेत्रों वाला युवक -अमरसिंह।जिसे गंगा के उस पार नयार गंगा के संगम के नजदीक तड़ियाल राजपूतों की गढ़ी तैड़ी की एक अनिंद्य सुंदरी सद्ययौवना तिलोगा से प्रेम हो जाता है। प्रेम भी ऐसा जिसका रास्ता गंगाजी भी न रोक सकी। तिलोगा की सगाई बचपन में ही बुटोला राजपूत परिवार के एक युवक से तय हो चुकी थी। लेकिन प्रेम का बीज कब और कैसे तिलोगा और अमर को एक कर गया बयाँ नही हो सकता था। कहते है एक मेले तिलोगा और अमरसिंह की नजरें मिलीं। एक बार जो मिली तो फिर ऐसी मिली कि जिसे पहली नजर में ही दिल देना कहते हैं। तिलोगा ने तत्क्षण अपना दिल अमर को दे दिया तो अमर ने भी अविलम्ब अपना दिल तिलोगा को। दो दिलों के इस रूहानी विनिमय में अब दिल दो न रहे ,बल्कि एक हो गए । प्यार का गणित विचित्र और जटिल जो होता है । अंधेरी रातों में अमर सिंह बीहड़ विकट पहाड़ से उतर कर गंगा के किनारे आता। गंगा इस घाटी में प्रचंड वेग से बहती है , पार करना नामुमकिन पर एक प्रेमी दूसरे प्रेमी से मिलने को आतुर हो तो भला गंगा राह क्यों न दे ? गंगा प्रेम की पराकाष्ठा को समझती है , उसने भी तो प्रेम किया था कभी । पेट पर तोमड़े ( लौकी की एक प्रजाति जिसे सुखा कर बर्तन बनते है) लगाकर गंगा की लहरों पर तैर अमरसिंह पहुंच जाता उस पार जहां तिलोगा प्रेमातुर हो इंतजार कर रही होती है , वो जानती है कि वो आएगा ।
आ गया और समय ने भी अपने कदम थाम लिए , इस भय से कि प्रेम उसकी आहट से ठिठक न जाय । आगे कुछ नहीं लिखना चाहता , जिन्होंने प्रेम किया हो उनके लिए लिखने की जरूरत ही नहीं । जिन्होंने न किया , उन्हें समझ ही नहीं आएगा । गुपचुप प्रेम की यह कथा चलती रही । पर ज्यादा दिन नहीं , इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपते । और कोई बताए न बताए , आंखें बता ही देती हैं । लोगों को पता चल गया । फिर , फिर वही हुआ जो होता आया है । जो हीर -रांझा के साथ हुआ , जो सोहनी -महिवाल के साथ हुआ ,जो लैला-मजनूं के साथ हुआ । दोनों को समझाया गया कि प्रेम न करो । बहुत समझाया -डराया -धमकाया । पर जो समझ जाय , डर जाय ,धमकियों से घबरा जाय वो भला प्रेम कहाँ ? प्रेम न सिर्फ अंधा होता है , बल्कि गूंगा-बहरा और नासमझ भी तो होता है । फिर चाल चली गयी , तिलोगा को बोला गया कि तू उसे बुला ले , हम तेरी शादी करवा देंगे । तिलोगा ने यह प्रिय संदेश प्रियतम को पहुंचा दिया । वो बहुत प्रसन्न थी , होती भी क्यों न , उसका प्रेमी जो आ रहा था अब चिरमिलन के लिए । अमरसिंह भी खुशी खुशी चला आ रहा था ,बन -ठन कर ,, पूरी राजपूताना आन बान शान के साथ । अकेला ,निर्भय ,बेफिक्र , भविष्य के सपने देखता हुआ । तिलोगा भी सोलह श्रृंगार कर सपने देख रही थी साझे भविष्य के । किन्तु भविष्य क्रूर हंसी हँस रहा था ,, भविष्य कई बार जाने क्यों निर्दयी हो जाता है ।
तिलोगा के परिजनों ने अकेले-निहत्थे अमरसिंह को घेर लिया और काल के घाट उतार दिया । अमरसिंह की अंतिम कराह पहुंच गई तिलोगा के कानों तक । वो नंगे पैरों दौड़ी आयी वहां ,जहां उसके प्रेमी का मृत शरीर धूल में लिपटा पड़ा था । प्रिय मृत्यु का यह अप्रिय दृश्य देख तिलोगा कुछ पल के लिए चित्रस्थ हो गयी , मौन -निर्जीव -हत । यहीं बगल में पानी का एक धारा है , जिसका पानी गांव के लोग पीते थे । तिलोगा ने अपना वक्ष स्थल स्वयं ही क्षत कर दिया ,अपनी ही कटार से । और चल पड़ी उस दिशा में जहां अमरसिंह बाहें फैलाये उसको बुला रहा था । दोनों के शरीर वहीं भूलुंठित निर्जीव पड़े थे , दोनों की आत्माएं एक दूसरे में लीन हो चुकी थीं । एक आँसू तक न टपका किसी का वहां तब । लेकिन गंगा रो रही थी। वो धारा भी बहुत रोया , आज भी रो रहा है ।
<घdiv style="text-align: justify;">उस धारा का पानी आज भी कोई नहीं पीता । पिये भी कैसे ? आँसुओं का श्राप जो है , वो धारा श्रापित धारा बन गया और तिलोगा और अमर सदा सदा के लिऐ इतिहास में अजर हो गये।
इस लोकगाथा का इतिहास लोक गायक विनोद बगियाल के शब्दो से भी साझा किया गया है। जिन्होने इसे बेहद मार्मिक ढंग से पिरोया है। ठाकुर नारायण सिंह कहते है कि मरते मरते तिलोगा और अमर ने तौड़ी गाँव में कभी सुदंर लड़किया न जन्मे ऐसा श्राप भी दे दिया था। तिलोगा के कटे स्तनो के कारण उनका कुँआ पानी से लबालब होने पर लोगो की प्यास नही बुझाता। इस घटना के बाद तैड़ी और भरपूर गढी में दुशमनी हो गयी और फिर कभी इन दोनो गाँवो में रिश्ते नाते नही हुऐ।
तो जरूर आईये इस ऐतिहासिक धरोहर को देखने। उस अजर प्रेमकथा को प्रेमाजंली देने....भरपूर द ब्लाईड लव स्टोर।