व्यंग्यात्मक स्मरण : पहले आप गया तेल लेने
उस रोज़ आटो वालों की स्ट्राइक थी। ऑटो नहीं मिला। सिटी बस में सफ़र के लिए मजबूर होना पड़ा। बस ख़चाख़च भरी थी। सांस तक लेना मुश्किल था। बामुश्किल खड़े होने भर की जगह नसीब हुई। तभी एक साहब ने सीट खाली की। एक स्कूली लड़की और हम एक साथ खाली सीट हथियाने ख़ातिर लपके। हम तकरीबन कामयाब होने को ही थे कि ख़्याल आया कि इस भीड़ में लड़़की ज्यादा परेशान है। लखनऊ की तहजीब़ का भी ये तकाज़ा था कि बड़ों, मजलूमों, महिलाओं और मासूमों को तरजीह दी जाए। लिहाज़ा हमने सीट लड़की को आफ़र कर दी। मगर लड़की बड़े अदब से बोली - प्लीज़ अंकल, आप बड़े हैं, लिहाज़ा पहले आप। हमें बड़ी हैरत हुई और साथ में खुशी भी। हम जैसे सफ़ेद फ्रेंच कट दाढ़ी वाले सीनीयर सिटीज़न को लड़की ने दादा जी नहीं कहा। और एक मुद्दत बाद ‘पहले आप’ सुनना नसीब हुआ। लखनऊ की गुम हो रही पहचान ’पहले आप’ एक मासूम लड़की में ज़िन्दा थी। हम दार्शनिक हो गए - बिटिया हमारा सफ़र तो अगले स्टाप पर खत्म होने को है। लिहाज़ा पहले आप तशरीफ़ रखें। लड़की मुस्कुराई - जी नहीं अंकल, पहले आप। इससे पहले कि ‘पहले आप, पहले आप' का सिलसिला आगे बढ़ता एक नौजवान लपक कर सीट पर काविज़ हो गया और बड़ी हिकारत और व्यंग्यात्मक भरी नज़रों से यों देखा मानों कह रहा हो ‘पहले आप’ गया तेल लेने।
वीर विनोद छाबड़ा की फेसबुक वाल से सभार
एक पुरानी याद का संक्षेप।
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०७-०२-२०२०