पोखरी के गांव में पेड़ों पर ही सड़ रहा है माल्टा, विपणन कि नहीं कोई व्यवस्था
पोखरी। पहाड़ों के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में माल्टा नींबू गलगल और नारंगी की बंपर पैदावार तो हो रखी है, लेकिन सरकार की तरफ से कोई विवरण की व्यवस्था न होने के कारण यह पेड़ों पर ही सड़ रहा है।
चमोली के विकासखंड पोखरी के गांवो में माल्टा, नींबू, नारंगी, संतरे, गलगल की बंपर पैदावार तो हो रखी है लेकिन सरकार की तरफ से कोई विपणन केंद्र की व्यवस्था न होने के कारण या तो पेड़ो पर ही सड़ रहा है या फिर पक्षियां इन्हें खा रही हैं। इन फलों का यहाँ टनो उत्पादन बर्बादी की कगार पर खड़ा है जिससे किसान निराश और हताश हैं। सरकार की तरफ से भले ही माल्टा और गलगल का समर्थन मूल्य घोषित कर रखा हो लेकिन समर्थन मूल्य सुनकर आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि सरकार द्वारा काश्तकारों के साथ कैसा भद्दा मजाक किया गया है। ₹6 माल्टा और ₹4 गलगल का समर्थन मूल्य घोषित कर सरकार ने अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री तो कर ली हो लेकिन किसानों के लिए यह दाम इतना वाजिब नहीं कि वे इस दाम पर सरकार की विभिन्न केंद्रों तक अपने माल्टा पहुंचा सके क्योंकि किसानों का साफ तौर पर कहना है कि उतना दाम सरकार ने घोषित नहीं कर रखा है जितना उनका किराया भाड़ा लग जाता है। ऐसे में किसानों का टनों उत्पादन बर्बाद जा रहा है।
उत्तराखंड में सरकारें काश्तकारों को बढ़ावा देने के लिए जुमलेबाजी और नारेबाजी तो खूब करती हैं लेकिन वास्तव में धरातल पर किसानों के लिए जब कुछ करने की बारी आती है तो सरकार हमेशा से फिसड्डी साबित होती रही है सरकारों के इसी उदासीनता के कारण लोगों का खेती और बागवानी से मोहभंग होता जा रहा है, हालात इस कदर बद से बदतर होते जा रहे हैं कि खेती बड़े पैमाने पर बंजर स्वरूप धारण कर रही है और पहाड़ों के गांव के गांव खाली हो रहे है। पोखरी मुख्यालय के निकट की बात करते हैं तो वल्ली, खन्नी नोठा, बनखुरी, मायाली, गुनियाला समेत सैकड़ों गांव ऐसे हैं जहां माल्टा और नींबू की बंपर पैदावार तो हो रखी है लेकिन काश्तकारों को उनका वाजिब दाम न मिलने के कारण वह जहां-तहां सड़ रहे हैं। कहीं जगह पर तो बिचौलिया आकर ओने-पौने दामों में किसानों से फल खरीद रहे हैं।
उत्तराखंड राज्य की जो मूल अवधारणा थी उसमें पहाड़ों में कृषि बागवानी से रोजगार के संसाधन पैदा करने जैसे सपने भी लोगों ने बुने थे लेकिन अपने राज्य बने 19 साल व्यतीत होने जा है लेकिन 19 सालों में सरकारे के कृषकों के लिए कुछ तो कर नहीं पाई लेकिन जो लोग कर रहे हैं उन्हें भी प्रोत्साहित नहीं कर पा रही है ऐसे में लोग खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि सरकारें अगर उत्तराखंड में पलायन को रोकना वास्तव में चाहती है तो यहां के किसानों को उपलब्ध जलवायु के अनुसार होने वाले उत्पादन को बढ़ावा देकर उन्हें प्रोत्साहित करें और उनके समुचित विपणन और बाजार की व्यवस्था उपलब्ध कराई जाय ताकी किसान अधिक से अधिक उत्पादन कर उसे वाजिब दाम में भेज सकें और अपने लिए रोजगार के संसाधन पैदा कर सकें।