कला : बेजुबान ठूंठों को भी जुबान देते अशोक चौधरी...
रूद्रप्रयाग़। कभी लोहे सी कठोर धातु पर घन बरसाते हुए तो कभी पेड़ की जड़ों और लकड़ियों पर सम्मोहित कर देने वाली विभिन्न कलात्मक आकृतियाँ उकेरते हुए रुद्रप्रयाग जिला मुख्यालय में पेशे से एक फैब्रिकेटर हैं अशोक चौधरी।
अक्सर हमारे आसपास ही हुनर बिखरा हुआ होता है लेकिन वक़्त रहते हमें उसकी पहचान नहीं होती है।पेशे से एक फैब्रिकेटर जो एकतरफ तो जीवन यापन के लिए रात-दिन घन और लोहे से संघर्ष करता दिखता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने आसपास बिखरी पड़ी हुई लकड़ियों के ठूँठ और टुकड़ों में जीवन को तलाशता है। एक आदमी के बाहर और भीतर का जो वास्तविक संघर्ष अगर कहीं दिखता है तो वो यथार्थ में अशोक चौधरी के व्यक्तित्व में दिखता है।और यही संघर्ष एक आदमी को इंसान बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है। आज अचानक से यूँ ही फिर अशोक से मिलने का संयोग हुआ । बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो कारोबार के साथ-साथ उनके wood sculpture के सिलसिले में भी बातचीत शुरू हो गई तो स्वाभाविक रूप से उनकी नई कृतियों को देखने का मन हुआ,तो वो भी खुशी-खुशी आसपास लोहे के ढेर में ही कई बिखरी पड़ी कलाकृतियों को यूँ ही बहुत ही अनौपचारिक तरीके से निकाल-निकालकर दिखाते रहे और उनके बारे में बताते भी रहे। उन कलाकृतियों और अशोक की नजर और नजरिये के मुरीद हुए बिना मैं न रह सका।अपने आसपास सैकड़ों ऐसे ठूँठ और टुकड़े अक्सर हमको दिख ही जाते हैं लेकिन शायद हमारी नजर वो सब नहीं देख पाती जो अशोक की नजर उसमें देख पाती है।
सामान्यतः हमारे जीवन दर्शन में कण-कण में भगवान होने की भावना बचपन से ही भरी जाती है। लेकिन इन कलाकृतियों को देखकर ऐसा महसूस होता है कि अशोक ने अपने जीवन में इसका संदर्भ ही बदल दिया हो जैसे। उन्हें हर ठूँठ,हर जड़ ,हर टुकड़े में किसी न किसी कलाकृति का रूप दिखता हो । अक्सर हम ज़िन्दगी की जद्दोजहद में अपने हुनर, अपने शौक को जाने-अनजाने ही पीछे छोड़ जाते हैं । लेकिन इसके बावजूद भी अशोक ने इसे अपने भीतर और बाहर भी
ज़िंदा रखा है वाकई में बड़ी बात है और मेरे लिए बहुत ही प्रेरणादायक भी।बस थोड़ा जरूरत है तो इसे कुछ व्यवस्थित स्वरूप देने की। एक और बात बड़ी गहराई से मैंने महसूस की , कि जिस प्रकार से एक पिता अपने बच्चों के लिए बाहर से जितना भी कठोर दिखता हो लेकिन भीतर से अशोक चौधरी जैसा ही कोमल होता है।अशोक के दोनों ही काम इसका साम्य हैं । बाहर जितना भी घन चलाये लोहा पीटे लेकिन भीतर से बेजुबान ठूंठों को भी जुबान देने की ताकत रखते हैं।
सलाम अशोक भाई तुम्हारे हुनर और जज़्बे को।यह यात्रा जारी रहे।