क्षणिका सृजन - 4
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उषा झा |
स्वार्थ टकराता रहा क.
धाराशायी रिश्ते हुए
बाजीगर चाल चले
फँसे राजा व्यूह में
पीछे खाई गहरी
आगे तालवारें तनी
मरे सीने पर वार से...।।
पहचान न पाया ख.
मोहरा बन बैठा
अक्ल कम तो नहीं
खतरा को भाँप न सका
घेर लिया सिपाही ..
चौकन्ना शायद नहीं था ..।
पहरेदारों का जाल में. ग
रहता वो हर हमेशा
घर के अंदर चींटी भी
घुस नहीं सकता था ।
मर गया बेचारा
शयन कक्ष में ही
पहरेदार घर के बाहर
पहरा देता रह गया.. ।